नदी अब यहाँ नहीं बहती
कुछ साल पहले
यहाँ एक नदी हुआ करती थी
कल-कल छल-छल
स्वच्छ जल बहती थी
रोज़ सुबह सूरज आता
पानी में अपना चेहरा देखता
‘अल्हड़ नदी भी उसे चाहकर
लाल हो रही”
यही सोचकर मुस्कुराता।
किनारो की झोंपड़ियों से
सुबह-शाम धुआँ उठता
वहाँ एक छोटासा मंदिर भी था ।
पुजारिन की बेटी रोज़ आती
घाट पर देर तलक नहाती
किसीका इंतज़ार करती
धनुआ को देखते ही
नज़र झुकाकर निकल जाती
घाट के पत्थर के नीचेसे
धनुआ कुछ उठाता
पतानहीं क्या रखकर जाती ?
कुछ चिड़ियाँ भी आतीं
चोंच डुबोकर पानी पी’ती
फिर कुछ देर चोंच ऊपर करतीं
लगता नदी की लम्बी उम्र की दुआ करती
दोनो ओर हरे-भरे खेत,खलिहान,सभी
नदी की लम्बी उम्र की दुआ करते
रात को एकांत में जानवर भी आते
पर नदी बहती थी।
उसे किसीसे क्या मतलब ?
सबकी बातें सुनती मुस्कुराती, बहती रहती।
उसे तो सागर से मिलना था
सूरज की मुस्कुराहट से बेख़बर
सागर की चाह दिलमें बिठाकर
अपनी धुन में चलती रहती
एकदिन सुबह खेत खोदने मज़दूर आए
नदी ने सुना किसी ज़मींदार ने
आस-पास की सारी ज़मीन ख़रीद ली है
दो दिन बाद धनुआ की लाश लेकर
कुछ लोग आए
चिता को आग लगाए
नदी सबकुछ देखती रही
सुनती रही ,
धनुआ ने अपना खेत नहीं छोड़ा
लड़ाई में बर्छी लगगई
पुजारिन की बेटी बेवा होगई
शादी से पहले रोज़
धनुआ के लिए प्रसाद लाकर
इसी घाट में रखजाती थी
बेचारी बड़ी अभागिन थी।
फिरभी नदी बहती ,
रोज़ सूरज लाल शर्मीली नदी की-
मुहब्बत में खोजाया करता,
नदी सागर की चाहत लेकर
चलती रहती ।
अब यहाँ नदी नहीं रही
सुखी रेत पर कंकर-पत्थर
ऊँचे-ऊँचे घर।
कहते हैं ज़मींदार को नदी से नहीं
पानी से मुहब्बत थी
उसे बिजली बनानी थी
शहर बसाना था
गाँव में छलकती प्यार की गागर
चाँदी के सिक्कों की
खनक के आगे बेकार थी।
नदी अब यहाँ नहीं बहती
मेरे अंदर की नदी की तरह
गुशलखानों के नलकों में
मुँह बंद किसी के आदेश का
इंतज़ार करती।
By-गीता मंजरी मिश्र(सतपथी)
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